शनिवार, 21 जुलाई 2012

प्राण पुलकें


आचार्य भगवत दुबे
1
लेकर हवा   
चली है चतुर्दिश  
भीनी खुशबू  
पुलकित करती  
हर्षित हो धरती ।
2
प्राण पुलकें  
 उमड़-घुमड़के  
मेघा बरसे  
 धरती हरषाई   
शीतलता है छाई ।
3
र्षा ॠतु    
करती है शृंगार  
धरा नवेली  
 नदियाँ इतरातीं   
चलती  बलखाती ।
4
जलसंचय  
है माँग समय की  
पानी बचाओ
व्यर्थ  मत बहाओ  
बूँद-बूँद बचाओ ।
5
मदनगन्ध  
कहाँ से आ रही है ?
तुम आए क्या
तभी तो महके हैं
मेरे  घर-आँगन ।
6
तुम आए हो  
फूलों सा खिला दिल  
वसन्त हो क्या?
सब पर छाए हो
 सबको हर्षाए हो ।
7
आँखों में तुम
काजल -से आँजे हो   
और क्या कहूँ?  
मन में समाए हो  
हम-तुम एक हैं ।
8
भाव की गंगा  
छन्दों की पतवार  
कवि तैराक  
प्रभु तारनहार  
करवाते हैं पार ।
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5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

अति सुन्दर अभिव्यक्ति...बधाई
कृष्णा वर्मा

Rachana ने कहा…

भाव की गंगा
छन्दों की पतवार
कवि तैराक
प्रभु तारनहार
करवाते हैं पार ।
सही कहा है आपने ऐसा ही है
बधाई
rachana

sushila ने कहा…

अति सुन्दर !
"भाव की गंगा
छन्दों की पतवार
कवि तैराक
प्रभु तारनहार
करवाते हैं पार ।"

अन्य ताँका भी बहुत सुंदर। बधाई !

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव. सभी ताँका उत्तम, बधाई.

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

Bahut sundar bhaav...