रेखा रोहतगी
1
इस जग में
सबसे विचित्र है
मानव-मन
सुखों को पाकर भी
होता निराश
दुखों
में भी न हुआ
कभी हताश
कभी हारकर भी
हार न माने
भीड़ में भी अकेला
स्वयं को माने
अकेलेपन को भी
कभी
मेला ही जाने ।
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2
मानसर में !
चुगता रहा मोती
मन का हंस
आँखें बन चकोर
पीती ही रहीं
चन्दा तेरी किरनें
सपने में भी
झपके न पलक
तेरी ललक
नेह-चाशनी पागी
लगन लागी
पंख उगे बिना ही
मैं तो हो गई पाखी ।
-0-
5 टिप्पणियां:
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई .
मानव-मन की विचित्रता को बहुत निपुणता से चित्रित किया आपने ...और बहुत सुन्दर है यह मानस का हंस ....हार्दिक बधाई आपको ...नमन !
मानव मन का बहुत सुंदर चित्रण किया है रेखा रोहतगी जी!
इतनी सुंदर अभिव्यक्ति के लिए बहुत-बहुत बधाई!!!
~सादर
अनिता ललित
choka ki prathham prastuti par utsaah-vardhan ke liye aap sabka evam kambose jee ka hardik abhinandan.
rekha rohatgi
कभी हारकर भी
हार न माने
भीड़ में भी अकेला
स्वयं को माने
अकेलेपन को भी
कभी मेला ही जाने ।
बहुत खूबसूरत चोका...हार्दिक बधाई...|
प्रियंका
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