– डा० सुरेन्द्र वर्मा
बहरहाल बात
हो रही थी हाल ही में प्रकाशित सेदोका-संग्रहों की। भारत में शुरू से ही यह पृथा
रही है कि जब भी कोई साहित्यकार अपनी कोई रचना पुस्तक रूप में प्रस्तुत करता है वह
अपने आराध्य की अर्चना और आराधना करता है। भक्ति भाव से अपने श्रद्धासुमन उसे
अर्पित करता है। आज आधुनिकता की चादर ओढ़े बहुतेरे रचनाकारों ने इस परम्परा से अपने
को मुक्त कर लिया है। लेकिन सेदोको के हमारे तीनों रचनाकार इस अर्थ में
परम्परावादी हैं कि वे अपने अपने आराध्य को भूले नहीं। डा० सुधा गुप्ता भगवान श्री कृष्ण की स्तुति करती हैं वही डा० उर्मिला अग्रवाल भी सर्वप्रथम माँ शारदे का स्मरण कर महादेव और कृष्ण को
अपने श्रद्धा के सेदोको-सुमन अर्पित करती हैं। उर्मिला जी तो स्वयं को कनुप्रिया
के रूप में ही देखती हैं और कहती हैं–ओ
कनुप्रिया / पुकार पुकार के / बुलाता है कदम्ब / कान्हा नहीं तो / उसकी राधिका की /छाया ही मिल जाए!
इसी प्रकार सुधाजी भी अपने आराध्य मन मोहन का रूप
वर्णन विभोर होकर करती हैं –
“मन मोहन / तुम श्याम बरन / इंदीवर लोचन /
पीत वसन / वैजयन्ती –धारण /
चिर आनंद-घन !”
डा० रमाकांत
श्रीवास्तव गाँधी भक्त हैं और उनका प्रथम सेदोका ही राम और गाँधी में भेद नही
करता। वे कहते हैं,
“नहीं है भेद / राम और
गाँधी में / दोनों ही प्रार्थनीय /
इनको पूजो / मानव बने रहो / प्रशस्त पुण्य गहो !”
कालक्रमानुसार सबसे पहले 2012 में डा० उर्मिला अग्रवाल का एकल सेदोका संग्रह “बुलाता
है कदम्ब” प्रकाशित हुआ। इसके सम्बन्ध में ‘अपनी
बात’ रखते हुए वे कहती हैं कि संग्रह के सभी सेदोका कहीं
न कहीं मानव की मूल भावनाओं से जुड़े हुए हैं। कहीं मन की भक्ति उभर कहीं कर आई है
तो कहीं प्रकृति का सौन्दर्य। कहीं अश्रु छलछलाते हैं तो कहीं आस्था के स्वर भी
प्रतिध्वनित होते हैं। कहीं नारी जीवन की पीड़ा सामने आती है तो कहीं यथार्थ को
सामने लाते प्रश्न भी कुलबुलाते हैं। कहीं रिश्तों की मिठास है तो कहीं कडुवाहट … परन्तु
अन्त एक आशावादी सोच के साथ ही होता है।
उर्मिला जी प्रकृति के सौन्दर्य से अविभूत हैं
और उसपर अपनी अनुभूतियाँ उड़ेलती रहती हैं। प्रकृति की संगत में वे सर्वाधिक
प्रसन्न रहती हैं और सकारात्मक सोच से भर उठती हैं -
‘काँप क्यों रहे /
पत्तों से मैंने पूछा / वे खिलखिला उठे
अरी नादान / कोई छुएगा तो क्या / सिहरन न होगी ।
नदी के कूल / बतियाते जा रहे / कलकल करते
मैं ऐसे खुश / जैसे बतियाया हो / पिया मेरे कानों में।
रोए न हम / बरस बरस के / थक गए बादल
इन्द्रधनुष / लहराते आँखों में / आगामी जीवन के ।
आस्था का
उनका यह स्वर धीरे धीरे दृढ होता चला गया है। संग्रह के अंतिम चरण तक पहुंचते
पहुंचते नया सबेरा उनके द्वार खटखटाने लगा है। रोशनी
के लिए माटी का नन्हा- सा दिया उनका आदर्श बन गया है –
माटी के दिये / काश तेरी तरह / इंसाँ सीखे जलना
बिना स्वार्थ के / हर घर आँगन / फैला दे वह रोशनी ।
लेकिन ज़ाहिर है ऐसी सकारात्मक भावनाएँ धीरे धीरे ही
विकसित हो पाती हैं। मनुष्य भी क्या करे?
बदलता है / मौसम की तरह / वो अपना मिज़ाज
कभी सर्द तो / कभी गर्म तो कभी / मेंह की
बौछार।
कितनी ही स्मृतियाँ जुडी हुई हैं,
धुँधली –धुँधली
खट्टी मीठी यादों ने डेरा जमा रखा है -
उतर आया / शाम का धुंधलका / मेरी निगाहों में भी
कुछ भी स्पष्ट / दिखाई नहीं देता / साये से लहराते।
डाला है डेरा / सुधियों ने मन में / कुछ रुला रुला दें
कुछ हँसा दें / तो कुछ रेशम सा / सहला दें मन को ।
आखिर यह
नारी-मन ठहरा। तमाम तमाम बंधनों में बँधी, पक्षपात सहती,
घर-आँगन में कैद, नारी करे भी तो क्या करे। उर्मिला
जी ने नारी का दर्द बड़ी शिद्दत से महसूस किया है। प्रतिभाशाली वह कम नहीं है,
शास्त्रार्थ में वह याज्ञवल्क्य को भी हरा सकती है लेकिन उसे
कूपमंडूक कर दिया गया है। उसकी प्रतिभा की लहरें पोखर में अवरुद्ध हो जाती हैं।
कहने को उसे देवी का दर्जा दिया गया है लेकिन सत्य तो यह है की उसे इंसान तक नहीं
बनने दिया गया -
बेटे का जन्म / खिल-खिल जाता है / चेहरा माँ-बाप का
भूल जाते कि / याज्ञवल्कय हारे / शास्त्रार्थ में गार्गी से ।
पोखर की सी / अवरुद्ध लहर / बन जाती औरत /
निकासी मार्ग / अक्सर न मिलता / नारी की प्रतिभा को ।
तुमने स्त्री को / देवी बना तो दिया / पर समझे नहीं
स्त्री को इसाँ से / प्रतिमा, जीवित से / निर्जीव
बना दिया ।
फिर भी स्त्री है कि पुरुष की खोज में, उसके ही इंतज़ार में, पलकों को बिछाए है। वस्तुत:
नारी मन ही ऐसा है, वह विष पीकर भी अमृत ही देती है -
मुगालता है / तेरा प्यार फिर भी / बेबस है ये मन
खोज रही मैं / हर उस डगर को / तुझ तक ले जाती जो ।
बीतती नहीं / प्रतीक्षा की घड़ियाँ / कब से बैठी हूँ
मैं
तुम्हारे लिए / राहें सजाए और / पलकों को
बिछाए ।
नारी मन है / अक्षय कलश सा / कभी न होता खाली
पी रही विष / स्त्री कितना फिर भी / वो अमृत ही देती
डा० अग्रवाल वर्त्तमान
व्यवस्था से काफी नाराज़ हैं। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें
दुर्जनों की रक्षा होती है और दुर्बलों को दबाया जाता
है। -‘अब व्यवस्था / रक्षा दे दुर्जन को / दबाए दुर्बल को’- लेकिन क्या यह सोचकर हमें चुप बैठा रहना चाहिए कि रहजनों का तो कार्य ही
लूटना है? ऐसी स्थितियों में चुप बैठ कर रह जाना ही सबसे बड़ी
गलती होगी। शायद इसी गलती की और उर्मिला जी व्यंग्यात्मक रूप से कह रही हैं –
रहज़नों का/ काम ही है लूटना/ उनसे क्या शिकवा हम
तो चुप / तब भी रहे जब / रहबरों ने लूटा ।
डा०
रमाकांत श्रीवास्तव यद्यपि प्रकृति के सौन्दर्य और प्रेम की
कोमल भावनाओं से अछूते नहीं हैं लेकिन वह उस व्यवस्था को जो अधर्म की ओर ले जाती
है अंकुश लगाने के लिए अपनी सेदोका रचनाओं में अधिक कृतिसंकल्प दिखाई देते है। आज
की नाना रूप विषैली विकृतियों और ह्रासोन्मुख कार्यकलापों की हेयता उन्हें सिर्फ
दु:खी ही नहीं करती बल्कि वह किसी तरह मानव के दानव में परिवर्तित हो जाने की
प्रक्रिया को रोकने की कोशिश करते भी प्रतीत होते है। अपने संग्रह ‘जीने का
अर्थ’ के ‘आत्म-कथ्य’ में
वे कहते हैं कि ‘संयम से
असम्पृक्त स्वाधीनता की नारकीय निरंकुशता से तो अपराध, अत्याचार, अराजकता और अपसंस्कृति के आयात में
अभिवृद्धि हुई है। उसकी निरंतरता कम त्रासद नहीं है।’ रमाकांत
जी ने अपनी सेदोका रचनाओं में इन सभी बातों को प्रतिबिंबित करने का प्रयास किया
है। वे कहते हैं, -
लूटम-लूट / स्वारथ ही स्वारथ / देश जाए भाड़ में
घर अपना / दौलत से भरना / पूरा होता सपना ।
कैसा सुराज / घोटाले ही घोटाले / कैसा लोकतंत्र ये
नहीं विराम / लुटेरों का राज है / गिराते वे गाज हैं ।
यमुना में / एक ही कालिया था / नाथा उसे कृष्ण ने
क्या हुआ जो हैं /आज वे हर कहीं / कृष्ण हैं कहीं नहीं ।
राष्ट्र द्रोही और अवांच्छित स्थितयों की वे बार बार
याद दिलाते हैं, कहते हैं - ‘अब तो
बस / निरुपाय बाहें हैं / अंध स्वार्थ राहें हैं’ ; केवल भौतिक स्तर पर ही नहीं बल्कि भावनाओं के स्तर पर भी, -सूखे हैं कुएँ / सूख गए तालाब / सूखी हैं संवेदनाएँ’ ; या फिर, ‘कैसा सुराज /
अमीरी ही अमीरी / गरीबी ही गरीबी’। इसका
एक कारण बाजारवाद भी है। क्योंकि -‘बाजारवाद
/ धनलिप्सा जगाता / त्याग को नकारता।’ कुछ
न कुछ तो अब करना ही पडेगा। इन स्थितियों से पार पाए बिना जीवित रहना भी बेशक दूबर
हो जाएगा।
वे देश प्रेम
के लिए स्वार्थ नहीं बल्कि उत्सर्ग की मांग करते हैं। राजनीति में परिवारवाद को
तिलांजलि देकर स्थितप्रज्ञता को वरण करने के लिए आमंत्रित करते हैं। जनसंख्या को
नियंत्रित करने की बात करते हैं, परिवार नियोजन पर बल
देते हैं -
जहाँ है उत्सर्ग/ वहाँ है सच्चा प्रेम / देश प्रेम माँगता
सदा उत्सर्ग / इससे विरहित / चाहेगा ही स्वहित ।
चेतो रे चेतो / परिवारवादियो / नहीं होती बपौती
ये राजनीति / स्थितप्रज्ञता को वरो / व्यक्तिनिष्ठा से डरो
रोकना होगा / मानुस की बाढ़ को / लीलती पशु-पक्षी बचेंगे
नहीं / बाग़ और बागीचे / जंगल चारागाह ।
बिना पक्षियों के, बिना बाग़ और बगीचों के तो मानवता का बचना ही शंकाप्रद हो जाएगा। वे इसीलिए
तितलियों और गौरैय्यों को खोजना चाहते हैं। वे पपीहे की व्यथा से द्रवित होते हैं।
वे जानते हैं कि शान्ति तो प्रकृति के सानिध्य में ही मिलेगी। रमाकांत जी कहते हैं
–
फूलों की गंध / बौरों की महक / पिकी की कुहकन
यदि रहेगी / मानवता बचेगी / धरा स्वर्ग बनेगी ।
चलिए खोजें / नीलकंठ गौरय्या / तितलियाँ भँवरे
नहीं दिखतीं / शहद की मक्खियाँ / हैं टावरी पंक्तियाँ ।
बोला पपीहा / अश्रु झरे वन के /अस बिंदु चमके
कैसी है व्यथा / भरी जो पुकार में / वन बाग़ हार में ।
प्रकृति प्रेमी रमाकांत जी कोयल से
कहते हैं कि वह आती रहे, कुहुकती रहे ; क्योंकि,
पिकी न आती / पता ही न चलता / ऋतुराज आया है-
आती रहो यों / दिलाने को आभास / भरने को उल्लास ।
कुहुकिनि री / जबजब तू आती / मधुऋतु ले आती
तू है स्वयं ही / सम्मोहक वासंती / कौन किसे न भाती ।
वसंत आता / कोयल के सुर में / जगती को रिझाता
मादक गंध / दिशा- दिशा फैलाता / महर महकाता ।
इसी तरह कवि
अमलतास और हरसिंगार के पुष्पों से पूछता है कि वे किसके स्वागत में झर झर कर बरस
रहे है?
किसके लिए / बिछ रहा शेत फूल / खड़ा हरसिंगार
कौन विशिष्ट / आएगा बड़े भोर / बिछे फूल अछोर ।
अमलतास / पीले पुष्प गुच्छ ले / किसके स्वागत को /
राह जोहता / आया पवन झोंका / बरसा दिए फूल ।
संक्षेप में
डा० रमाकान्त श्रीवास्तव का जीवन दर्शन पूरी तरह
से देश प्रेम और प्रकृति प्रेम को समर्पित है। वे निष्काम कर्म पर बल देते हैं और
प्रेय की बजाय श्रेय को वरण करने का आह्वाहन करते हैं। –
जीने का अर्थ / जाय न कभी व्यर्थ / होता रहे सार्थक
भूलें न कभी / शुद्ध कर्म अर्घ्य है / श्रेय ही वरेण्य है
डा० सुधा गुप्ता एक जानी-मानी हाइकुकार है। हाइकु परिवार की अन्य
विधाओं, जैसे ताँका, सेंर्यू, चोका, सेदोका आदि,
में भी उनकी लेखनी धन्य हुई है। इस बार वे सेदोका के साथ ‘सागर को
रौन्दने’ निकली हैं। सेदोका-संग्रह ‘सागर को
रौन्दने’ में एक पूरा खंड भी इसी शीर्षक से है। इस खंड में
उन्होंने व्यक्ति के सूनेपन को, उसके जलते छालों को, उसके मन में घर किए भय और पीछा करते भूतकाल को एक झटके में निरस्त करने का
संकल्प लिया है और वह, ‘जर्जर
नौका / उखड़े हैं मस्तूल / ज़ख्मी हो चुके पाल / निकल पडी / टूटे फूटे चप्पू ले /
सागर को रोंधने!’ ज्योति पर्व के बहाने वह आशा जगाती हैं और कहती हैं,
छोड़ पुराना / गहो नवल, मन ! / बिसरा कर तम
केंचुल त्यागो / जीर्ण-शीर्ण हो गयी / राह बुलाती नई।
यह आस्था और आशावादिता सुधा जी को प्रकृति के साहचर्य
में सहज ही मिल गयी है –
कभी पुरानी / प्रकृति न पड़ती / नित नव शृंगार
कभी न बैठो / झोली में तुम भर / निराशा के अंगार ।
डा० सुधा गुप्ता मूलत:
प्रकृति की ही गायिका हैं। बार बार वह उसी के पास जाती हैं और हर बार कुछ न कुछ
नया पा जाती हैं –
कौतुकमयी / प्रकृति सहचरी / सरि उल्लास भरी
तट पे जाऊँ / गोते लगाऊँ, फिर / भर लाऊँ गगरी
सुधा जी को प्रकृति का हर रूप प्रिय है। सुबह, दोपहर शाम या रात कोई भी प्रहर क्यों न हो, उन्हें
आकर्षित करता है। वे प्रकृति के हर पहलू का मानवीकरण कर उसे अपना सखा बना लेतीं
हैं। उसके बहाने अपने कोमल, सुन्दर,
सुकुमार भावों की अभिव्यक्ति करती हैं।-
उषा अप्सरि / अभिनव सम्भार / कर रही शृंगार
उतावली में / हाथ छूटा सिधौरा / हो गई पूरी लाल ।
दूब बिछौने / धूप का तकिया ले / सोई जो दुपहरी
वक्त ने छला- / जा चुका था सूरज / आँख ही तब खुली ।
फाख्ता थी शाम/भूरी-सलेटी पांखें/कुछ बोलती आँखें
मुँडेर बैठी / कुछ देर टहली / खामोशी से उड़ ली ।
अमा-निशा ने / चाँद चुराया, किया / सात तालों में बन्द चकमा दे के / बाहर आया, हँसा / आकाश का आनन्द ।
इसी प्रकार प्रकृति की सभी ऋतुएँ, और वर्ष के सभी माह भी, उनके लिए कभी आनंदोत्सव तो
कभी उदास होने का बहाना बन जाते हैं -
मेघ न आए / आषाढ बीत गया / सावन रीत गया
विरह व्यथा / यक्ष किसे सुनाए / कैसे भेजे सन्देश
हेमंत आया / धूप हुई चन्दन / सब माथे लगाएँ
जड़ चेतन / सूरज ने रिझाया / शीश पर बैठाएँ
तापसी भोर / उदास एकाकिनी / राम राम जपती
मुँह अँधेरे / धुंध कथरी ओढ़ / गंगा नहाने चली
झरे हैं पात/शिशिर का आघात/काँपे पेड़ों के गात
सृष्टि सुन्दरी / गुप-चुप हँसती / आएँगे नवजात
ऋतु-शृंगार / सुमन सुशोभित / दर्शक भी मोहित
बागबाँ कहे- / ‘हाड़’ की
खाद डाली / तब कहीं ये फले
(इस सेदोका में ‘हाड़’ शब्द
का इस्तेमाल देखते ही बनता है। जहाँ यह एक और बागबाँ की हाड़-तोड़ मेहनत को दर्शाता
है वहीं दूसरी और यह हड्डियों के चूरे की खाद का द्योतक भी है जो उर्वरा शक्ति को
बढाता है। बसंत ऋतु का श्रृंगार सहज ही नहीं हो जाता।)
‘रोती
रही चिरई’ इस संग्रह का वह खंड है जिसमें चिड़िया के बहाने
भावुक कवयित्री ने स्त्रियों के दु:ख को वाणी दी है। पुरुष की यह फितरत है की वह
स्त्री को भौतिक सुख-सुविधाएँ देने के बाद उसे भूल जाता है। उसकी स्वाधीनता की
कामनाएँ, उसकी महत्वाकाँक्षाएँ अपने पास गिरबी रख लेता है।
उसके दु:ख, उसके ‘रिसते
हुए छाले’ वह देखता ही नहीं –
दो कुल्हिया में / रख के दाना-पानी / भूल गया मनई
मुँह फेर के / सोने के पींजरे में / रोती रही चिरई ।
तुम आज़ाद / गगन के पंछी थे / बड़ी ऊँची उड़ान
मैं थी घिरी / सींकचों के भीतर / पंख-बँधी चिरई ।
जोगी ठाकुर / मीरा के पाँव तुम / घुँघुरू बाँध गए
मुड़ के देखा? / रिसते रहे छाले / मीरा नाचती रही ।
ऐसी रचनाओं में भावों की तरलता बस देखते ही बनती है।
डा० उर्मिला अग्रवाल ने अपने ‘बुलाता
है कदम्ब’ संग्रह में नारी का जो उदात्त निरूपण किया है वह
डा० सुधा गुप्ता के नारी-महिमा खंड के प्रथम
शीर्षक-सेदोका से बिलकुल अभिन्न है, जिससे पता चलता है की
दोनों के कथ्य और कथन में कितना साम्य है। दोनों ही नारी-मन की मर्मज्ञ हैं। डा० अग्रवाल कहती हैं, ‘नारी मन
है / अक्षय कलश-सा / कभी न होता खाली / पी रही विष / स्त्री कितना फिर भी / वो
अमृत ही देती।’ नारी के विषय में ठीक यही भाव और लगभग ऐसी ही
अभिव्यक्ति हमें डा० सुधा गुप्ता के इस सेदोका में भी दिखाई
देती है।
नारी की महिमा / पीकर विष-प्याला / सौंप देती अमृत
उसका पथ / सदा ऋत-सात्विक / त्याग क्षमा आवृत्त ।
वैसे सुधा जी
और उर्मिला जी दोनों ही नारी की पीड़ा और प्रकृति के प्रेम में अपनी रचनाओं की
सार्थकता देखती हैं किन्तु वे अपने सामाजिक वातावरण और परिवेश से भी उदासीन नहीं
हैं। डा० सुधा गुप्ता आज की हिंसक और क्रूर संस्कृति को, जिसने सभी मानवीय मूल्यों को रौंदकर रख दिया गया है, उस जीवन-शैली का ही एक रूप बताती हैं जो गुफाओं में रहने वाले
आदिम मनुष्य की रही होगी।
बदल चुकी / अब जीवन शैली / चादर पूरी मैली
लौटा मानव / फिर आदि गुफा में / हिंसा क्रूर, बनैली ॥
डा० सुधा गुप्ता हमेशा की तरह अपने इस सेदोका
संग्रह में भी एक अत्यंत सफल कवयित्री के रूप में उभरी हैं। जापान की हाइकु परिवार
की कविताओं के रचाव में वे अद्वितीय है।
-0-
– डा० सुरेन्द्र वर्मा
/ 10/1- सर्कुलर रोड, इलाहाबाद -211001
(मो) 09621222778
8 टिप्पणियां:
आदरणीय सभी साहित्यकारों को नमन और उम्दा संग्रह हेतु हार्दिक बधाई
बहुत सुन्दर समीक्षा हैं, एक एक पक्तिं के दृश्य चित्र बनकर उभर रहे थे। आदरणीय वर्मा जी को हार्दिक बधाई,कल एक बार पुनः पढूंगी। मन के सोये भाव करवटें लेने लगे हैं। सादर
आदरणीय डॉ रमाकांत श्रीवास्तव सर जी, आदरणीया डॉ सुधा गुप्ता दीदी जी एवं आदरणीया डॉ उर्मिला अग्रवाल दीदी जी तीनों की रचनाएँ बहुत ही अर्थपूर्ण, भावमय एवं दिल को छूने वाली हैं। प्रकृति के अत्यंत निकट होने के साथ-साथ वास्तविकता से ओतप्रोत हैं। रचनाकारों के सन्देश सीधे पाठक के दिल तक पहुँचते हैं।
आदरणीय डॉ सुरेन्द्र वर्मा जी द्वारा की गई समीक्षा बहुत ही रोचक व उपयुक्त है।
सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं इन प्राभवशाली सेदोका संग्रहों को उचित पाठक मिलें इन्हीं शुभकामनाओं के साथ
~सादर
अनिता ललित
आदरणीय डॉ. श्रीवास्तव सर जी , आदरणीया डॉ. सुधा दीदी एवं आदरणीय डॉ.उर्मिला दीदी तीनों सशक्त हस्ताक्षरों की सुन्दर ,सरस कृतियों पर बेहद सारगर्भित प्रस्तुति है |उद्धरणों को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि पुस्तक पढ़ने का लोभ संवरण ही न हो |
सभी के प्रति सादर नमन एवं हृदय से शुभ कामनाओं के साथ
ज्योत्स्ना शर्मा
भावपूर्ण मोहक रचनाएँ ,बहुत ही सुन्दर संग्रह....आदरणीया डा० सुधा गुप्ता जी, डा० उर्मिला अग्रवाल जी, एवं आदरणीय डा० रमाकांत श्रीवास्तव जी को अनेकानेक बधाई!
सार्थक समीक्षा के लिए आदरणीय डा० वर्मा जी को हार्दिक बधाई!
आदरणीया सुधा जी, उर्मिला जी एवं रमा कान्त श्रीवास्तव जी की भावपूर्ण, सशक्त रचनाओं को आदरणीय सुरेन्द्र जी द्वारा प्रस्तुत समीक्षा में पढ़ कर तीनों रचनाकारों के संग्रहों को पढने की इच्छा है | प्रकृति की सूक्ष्मता और मानवीय जीवन की झाँकी मिलती है इस समीक्षा में | रचना कारों के साथ -साथ सुरेन्द्र जी को बधाई |
शशि पाधा
Sabhi ko hardik badhai...
param aadarniy dr. ramakant ji,dr.sudha ji dr. urmila ji tatha dr. rama ji ko saadar naman...aap logo ki rachnaye bahut hi bhaavpurn ,arthpurn tatha dil ko choone wali hain.....sunder v saarthak samiksha ke liye dr. rama ji ko haardik badhai eak baar phir se aap sabhi ko naman tatha shubhkaamnaye.
इतनी सुन्दर, सार्थक और सटीक समीक्षा पढ़ कर हर पाठक के मन में इतने उत्कृष्ट संग्रहों को पढने की इच्छा जाग जाएगी...|
हार्दिक बधाई और आभार...इतनी सार्थक समीक्षा के लिए...|
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