सुदर्शन
रत्नाकर
काली
थी
रात
हुई
जो
बरसात
निगल
गई
सूनी
हुईं
वादियाँ
टूटे
पहाड़
उफनती
नदियाँ
बहा
ले
गईं
जहाँ
मौत
थी
खड़ी
बाँहें
पसारे
कितनी
भयावह
!
अपने
छूटे
नज़रों
के
सामने
बहते
गए
कैसी
आपदा
सूझता
नहीं
रास्ता
किसे
पुकारें ?
जीवन
जहाँ
कल
अगले
पल
पसरा
है
सन्नाटा
आँखें
खोजतीं
लहरों
की
गोद
में
छूटे
जो
साथी
।
चेत
जाओ
मानव !
प्रकृति
देती
छेड़छाड़
करो
तो
वू ले भी लेती
कैसा
है
ज़लज़ला
ले
गया
ज़िंदगियाँ ।
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9 टिप्पणियां:
बेहद मार्मिक रचना.......
prakiti ke prakop ka spasht chitran bahut sundar, dukhad hai.
Pushpa mehra
बहुत मार्मिक चोका....बधाई!
maarmik rachna ...
hridaysparshi ...
बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
जीवन जहाँ कल
अगले पल
पसरा है सन्नाटा
आँखें खोजतीं
लहरों की गोद में
छूटे जो साथी ।
हर पल.. हर बूँद.. अब बस याद दिलायेंगी.. कोई जो अपना था.. !
गहरे दर्द की गवाही देती मार्मिक रचना.. !
behad marmik chitran
सचेत करती ...मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति !
सादर
ज्योत्स्ना शर्मा
उफ़...बहुत सजीव चित्रण...| मन को बहुत गहरे से छू गया...|
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