डॉ
सरस्वती माथुर
1
गर्मी
के दिन
धूप
की रसधार
सूरज
की तीली से
जलती
हवा
धरती
पर भागे
खींचे-
ताप के धागे ।
2
कभी
कभार
अतीत
आ जाता है
जब
बहुत पास
मन
पाखी- सा
उड़
जाता है दूर
बेगाना
लगता है ।
3
भीड़
भरी हैं
जिंदगी
की राहें भी
असंख्य
चेहरे हैं
जो
दिशाहीन
गंतव्य
के बिना ही
दौड़ते
जा रहें हैं ।
4
जुगनू
-मन
दीप-
सा जलकर
झिलमिल
करता ,
पूनम
बन
अमावस
पीकर
रोशनी
को भरता ।
5
छल
ही छल
तांत्रिक- सी हवाएँ
भूलभुलैया
राहें,
कैद
है मन
सुधियों
के आँगन
जीवन
भी छलिया ।
6
पहाड़ों
पर
जब
उनींदी धूप
सुरमई
हो जाती,
पहाड़ी
घाटी
मौन
रह कर भी
खूब
बातें करती ।
-0-
6 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर भावपूर्ण सेदोका !
कभी कभार ....,भीड़ भरी हैं ...छल ही छल ..मन को छू गए |
डॉ. सरस्वती माथुर जी को बहुत बधाई !
सादर
ज्योत्स्ना शर्मा
भावपूर्ण सेदोका...कभी कभार, छल ही छल बहुत बढ़िया लगे .....हार्दिक बधाई!
वाह बहुत सुंदर सेदोका सरस्वती जी। गर्मी के दिन वाला की पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं। … धरती पर भागे /खींचे ताप के धागे। … जुगनू मन भी भा गया … अमावस पी कर रौशनी को भरता। बधाई।
कभी कभार
अतीत आ जाता है
जब बहुत पास
मन पाखी- सा
उड़ जाता है दूर
बेगाना लगता है ।
Bahut bhavpurn meri hardik badhai...
अच्छी रचना…बधाई आपको.
कभी कभार
अतीत आ जाता है
जब बहुत पास
मन पाखी- सा
उड़ जाता है दूर
बेगाना लगता है ।
बहुत सुन्दर...हार्दिक बधाई...|
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