मुट्ठी भर खुशी
प्रियंका गुप्ता
याद कीजिए वो बचपन के दिन...दीवाली की मस्ती का खुमार अभी पूरी तरह उतरा होता भी नहीं था कि कहीं न कहीं से सांता क्लॉज़ के आने की सुगबुगाहट शुरू हो जाती थी । माताएँ बच्चों को कई दिन पहले से धमकाने लगती...ज़रा भी बदमाशी की या बड़ों की बात न मानी तो देखना...सांता क्लॉज़ तुमको कोई गिफ़्ट नहीं देंगे...और हम कुछ दिनों के लिए बहुत समझदार बन जाते । रोज़ रात को कभी फुसला के, तो कभी धमका के हमको सुलाने वाली माँ क्रिसमस की पूर्व संध्या पर चैन की एक लंबी साँस लेती जब हम बहुत प्यारे और सीधे-साधे बच्चे की तरह नौ बजते-बजते अपने सिरहाने मोज़े-दस्तानो से लेकर एक बड़ा सा झोला भी रख के चुपचाप गहरी नींद सो जाते, इस आशा और उम्मीद के साथ कि शायद सांता क्लॉज़ के पास हमारे लिए इतने सारे गिफ्ट्स निकल आएँ कि मोज़ा और दस्ताना उसको रखने के लिए छोटा पड़ जाए । अब ये बात दूसरी है कि सुबह कोई छोटी-मोटी सी चीज़ मिलने पर हमारे पास सिर्फ दो ही विकल्प होते थे...या तो उन्हें पाकर हम उछलते-कूदते पूरी ख़ुशी मना लें या फिर मुँह लटकाने पर...सांता ने तुम्हारी सब बदमाशी देखी, इस लिए ये दिया, और करो बदमाशी...का ठीकरा अपने सिर फुटवाएँ । ऐसे में अंदर ही अंदर कुढ़ने के बावजूद ज़्यादातर पहला विकल्प चुन के ही खुश हो जाते थे हम लोग...।
बहुत बार यूँ भी होता था कि कोई ऐसा जलखुखरा साथी जिसे सांता ने एक भी गिफ्ट नहीं दिया होता था, वह हमारे गिफ़्ट और उनके संग बोनस में मिली ख़ुशी को बड़ी बेरुखी से नज़रअंदाज़ करता हुआ मुँह बिचका देता था...हुंह...बड़े आए सांता वाले...ये सांता वांता कोई नहीं होता...ये तुम्हारी मम्मी रखे होंगी रात को...हमारी अम्मा सब जानती हैं ये सब चोंचले...।
ऐसी जली-कटी सुन कर बहुत कम ही ऐसा होता था कि वो ज्ञानी-महात्मा हमारे कोप से बच पाया हो । अब ये बात और है कि बाद में लुटे-पिटे से...मुँह बिदोरते हुए हम जब माँ के पास पहुँचते थे तो वहाँ जो भी आफ्टर इफ़ेक्ट होते थे, उनके किस्से फिलहाल बताने से क्या फायदा...?
आज हम सब बड़े हो चुके हैं और सांता की असलियत से भी पूरी तरह वाक़िफ हैं, पर जाने क्यों क्रिसमस के करीब की इन सर्द रातों में जब हम खुद के साथ नितांत अकेले होते हैं तो दिल करता है, काश ! झूठी ही सही, पर क्या एक बार फिर हमारे सो जाने के बाद चुपके से आकर सांता हमारी खाली हथेलियों में मुट्ठी भर खुशी नहीं छुपा सकते...?
सपने देखे
मासूम बचपन
बहल जाए ।
-0-
प्रियंका गुप्ता
याद कीजिए वो बचपन के दिन...दीवाली की मस्ती का खुमार अभी पूरी तरह उतरा होता भी नहीं था कि कहीं न कहीं से सांता क्लॉज़ के आने की सुगबुगाहट शुरू हो जाती थी । माताएँ बच्चों को कई दिन पहले से धमकाने लगती...ज़रा भी बदमाशी की या बड़ों की बात न मानी तो देखना...सांता क्लॉज़ तुमको कोई गिफ़्ट नहीं देंगे...और हम कुछ दिनों के लिए बहुत समझदार बन जाते । रोज़ रात को कभी फुसला के, तो कभी धमका के हमको सुलाने वाली माँ क्रिसमस की पूर्व संध्या पर चैन की एक लंबी साँस लेती जब हम बहुत प्यारे और सीधे-साधे बच्चे की तरह नौ बजते-बजते अपने सिरहाने मोज़े-दस्तानो से लेकर एक बड़ा सा झोला भी रख के चुपचाप गहरी नींद सो जाते, इस आशा और उम्मीद के साथ कि शायद सांता क्लॉज़ के पास हमारे लिए इतने सारे गिफ्ट्स निकल आएँ कि मोज़ा और दस्ताना उसको रखने के लिए छोटा पड़ जाए । अब ये बात दूसरी है कि सुबह कोई छोटी-मोटी सी चीज़ मिलने पर हमारे पास सिर्फ दो ही विकल्प होते थे...या तो उन्हें पाकर हम उछलते-कूदते पूरी ख़ुशी मना लें या फिर मुँह लटकाने पर...सांता ने तुम्हारी सब बदमाशी देखी, इस लिए ये दिया, और करो बदमाशी...का ठीकरा अपने सिर फुटवाएँ । ऐसे में अंदर ही अंदर कुढ़ने के बावजूद ज़्यादातर पहला विकल्प चुन के ही खुश हो जाते थे हम लोग...।
बहुत बार यूँ भी होता था कि कोई ऐसा जलखुखरा साथी जिसे सांता ने एक भी गिफ्ट नहीं दिया होता था, वह हमारे गिफ़्ट और उनके संग बोनस में मिली ख़ुशी को बड़ी बेरुखी से नज़रअंदाज़ करता हुआ मुँह बिचका देता था...हुंह...बड़े आए सांता वाले...ये सांता वांता कोई नहीं होता...ये तुम्हारी मम्मी रखे होंगी रात को...हमारी अम्मा सब जानती हैं ये सब चोंचले...।
ऐसी जली-कटी सुन कर बहुत कम ही ऐसा होता था कि वो ज्ञानी-महात्मा हमारे कोप से बच पाया हो । अब ये बात और है कि बाद में लुटे-पिटे से...मुँह बिदोरते हुए हम जब माँ के पास पहुँचते थे तो वहाँ जो भी आफ्टर इफ़ेक्ट होते थे, उनके किस्से फिलहाल बताने से क्या फायदा...?
आज हम सब बड़े हो चुके हैं और सांता की असलियत से भी पूरी तरह वाक़िफ हैं, पर जाने क्यों क्रिसमस के करीब की इन सर्द रातों में जब हम खुद के साथ नितांत अकेले होते हैं तो दिल करता है, काश ! झूठी ही सही, पर क्या एक बार फिर हमारे सो जाने के बाद चुपके से आकर सांता हमारी खाली हथेलियों में मुट्ठी भर खुशी नहीं छुपा सकते...?
सपने देखे
मासूम बचपन
बहल जाए ।
-0-
चुंबकीय मुस्कान
कमला घटाऔरा
रविवार का ठंड वाला दिन ! हमें हंसलो से अंडर ग्राउंड ट्यूब लेकर रिश्तेदारी में ईस्ट लंदन अखंडपाठ के भोग पर जाना था । बाहर ठंड थी लेकिन मन भीतर गर्मागर्म विचारों का संघर्ष चल रहा था। ट्रेनों में धक्के खाते जाओ और अँधेरा होने के डर से तुरंत लौट पड़ो। न किसी से ठीक से मिलना न कोई बात।
छुट्टी वाले दिन भी ट्यूब खचा खच भरी थी। भाग्य से बैठने की सीट मिल गयी। सामान के साथ लोगों का चढ़ना उतरना घुटनों को सिकोड़ कर बैठने को विवश कर रहा था। हर स्टेशन पर एक रेला आता। एक उतरता। भीड़ वैसी की वैसी। किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं थी । सामान्य भाव बनाये रखने वाला मेरा मुखौटा ही धीरे -धीरे खिसकने लगा। मैं बार -बार स्टेशन गिनती और कितने स्टेशन बाकी हैं।
मेरी दृष्टि मुसाफ़िरों को घूम -घूम कर देखती। वे तो जैसे बाहरी दुनिया से बेखबर अपने में मस्त अपने अपने गन्तव्य की ओर जा रहे थे मौन धारण किये। उन्हें किसी से कुछ लेना देना नहीं था। हर स्टेशन पर नए चेहरों के दर्शन होते। पुराने उतरते। देश विदेश के नाना भाँति के लोग। ध्यान तभी भंग होता जब आने वाले स्टेशन की एनाउंसमेंट होती। और स्टेशन आने पर सावधान किया जाता .... ‘ माइंड दा गैप विटविन स्टेशन एंड प्लेटफार्म ‘
तभी… एक स्टेशन पर एक ऐसे हँसमुख चेहरे ने प्रवेश किया। जिसकी दिव्य मुस्कान ने सारे डिब्बे को जगमगा दिया। घना कोहरा जैसे छँट गया। ताजे गुलाब की सी खिली- खिली उस मुस्कान की सुगंध ने मुझे जैसे किसी बाग में पहुँचा दिया । ख़ीज भी कहीं गायब हो गई । उस चेहरे में ऐसा चुंबकीय आकर्षण था जिसने मेरी दृष्टि को बाँध लिया। मेरे अंदर जो अवसाद भरा था पता नही कहाँ चला गया। कैसे ? यह भी नहीं जानती। वह न कोई जान पहचान वाली थी ,न कोई सखी सहेली। गौरवर्ण की सुकुमार सी युवती। किस देश से है? चेहरे से अंदाजा नही लगाया जा सकता था। वह कहीं से शायद छुट्टियाँ काट कर आ रही थी। सामान से लदालद भरे हुए दो भारी अटैची लिये । एयर पोर्ट के टैग उनपर अभी भी लटक रहे थे।
कोई अनजान अपनी मधुर मुस्कान से किसी को आकर्षित करता कईओं ने देखा होगा। लेकिन ऐसी चुंबकीआ मुस्कान दुर्लभ ही देखने को मिलती है। हमारा एक दूसरे से मूक वार्तालाप कुछ क्षणों का ही था; क्यों कि मेरा गन्तव्य आ गया था। मैंने उतर कर मुड़के देखा जैसे उस से विदा ले रही हूँ। लेकिन मेरे चेहरा घुमाकर देखने से पहले ही ट्यूब काफ़ी आगे जा चुकी थी। मन उदास सा हो गया दुबारा उस मुस्कान की शीतलता, मधुरता ,अपनत्वपनभरी खींच कभी उपलब्ध होने वाली नही थी । इतने बड़े विश्व में बिना नाम पते के किसी को भी ढूँढा नही जा सकता। उस की तो मिलने की कल्पना करना भी बेकार था। तभी मुझे अहसास हुआ कि मैं उसे ट्रेन में छोड़ कर नही आई बल्कि वह तो मेरे साथ साथ चली आई है मेरे मन में बैठ कर। जुदा न होने के लिए। क्यों कि मेरे मन में अब कोई विषाद, कोई ख़ीज नहीं थी। विषाद भरे मन पर शीतलता का छिड़काव करने जैसे प्रभु की माया ही अपनी जादुई मुस्कान बिखेरने आई थी वह तो । मेरा मन प्रसन्ता की रौशनी से भर गया। मेरे कदम बिना किसी आनाकानी के ट्यूब स्टेशन से बाहर आकर अपनी राह चल पड़े …
छँटे बादल
हँसी सूर्य किरण
हुआ उजाला।
20 टिप्पणियां:
मन के कोमल भावों को अभिव्यक्त करते दोनों ही हाइबन बहुत सुन्दर हैं ,बाल मन और सहज मुस्कान का जादू बड़ी खूबसूरती से उकेरा गया है | दोनों रचनाकारों को हार्दिक बधाई !
dono haiban bahut sundar! shubhkaamnayen!!
सांता के संग मासूम मुस्कान लौट आई और मुस्कान तो पल में ग़ैर को अपना बना लेती है। सुंदर हाइबन। दोनों लेखिकाओं को बधाई !
प्रियंका गुप्ता और कमला घटाऔरा के हैबन बहुत ही भाव पूर्ण, दिल को छू लेने वाले हैं. बधाई|
donon haiban bahut hi sunder hain , priynka ji va kmla ji ko badhai .
pushpa mehra
haiban ek nayi yatra se lage aapgono ko bahut bahut badhai
rachana
मुट्ठी भर ख़ुशी
प्रियंका गुप्ता जी बहुत मनोरंजक तरीके से आपने लिखा है यह हाइबन। शांता क्लॉज़ से मिलने वाली गिफ़्ट का लालच बच्चों के लिए अनमोल ख़ुशी की सौगात का पल है। भले ही हम बड़े इस गिफ़्ट मिलने के रहस्य को जान गयें हों लेकिन नन्हे बच्चों की आँखों में जगे सपने माता पिता को भी खुशिओं से भर देते हैं। भले ही हर माता पिता अपने बच्चों के सब सपने पूरे न कर पाएं। सपने देखने का आनंद तो देते हैं। बहुत सुंदर लगा यह हाइबन। लेकर आती रहें सुंदर रचनाएँ। बधाई बटोरें। यही कामना है।
संपादक द्वय जी आपका आभार मेरी रचना को यहाँ स्थान देने के लिए। मेरे साथी रचनाकारों को धन्यबाद मेरा उत्साह बढ़ाने के लिए।
बहुत सुंदर संस्मरण हैं
सबसे पहले तो आदरणीय कम्बोज जी और हरदीप जी का आभार...|
कमला जी, बहुत प्यारा हाइबन है...| सचमुच कई बार ऐसा होता है कि किसी अनजान का चेहरा, उसकी भाव-भंगिमाएँ अथवा सबसे बड़ी, उसके चेहरे पर सजी एक मधुर मुस्कान बरबस अपना ध्यान इस तरह आकर्षित कर लेती है, कि वह चेहरा स्मृतियों से भुलाए नहीं भूलता...| सचमुच वो लोग भाग्यशाली होंगे जिनको उस लडकी का सानिध्य मिलता होगा...| आपको बधाई ऐसी कोमल भावनाओं से भरे हाइबन लिखने के लिए...|
आप सभी साथियों का भी बहुत आभार, मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए...|
प्रियंका जी तथा कमला जी के हाइबन सच में दिल को छूने वाले तथा भाव पूर्ण हैं। कितना सरल है ज़िंदगी की छोटी छोटी बातों तथा मन के कोमल भावों को हाइबन में पिरोकर अभिव्यक्त करना.....पाठकों के संग साँझा करना। यह बातें जाने अनजाने में हमारा मनोरंजन करती हैं तथा एक अच्छी सीख भी दे जातीं हैं। मुझे तो बहुत ही अच्छा लगता है इन छोटी छोटी बातों में ख़ुशी ढूँढना तथा जिंदगी को सरलता से जीते का मार्ग ढूँढना। हर हाइबन यही तो बात करता है।
एक बार फिर से मैं त्रिवेणी के सभी पाठकों तथा लेखकों का तहे दिल से शुक्रिया अदा करती हूँ अपना साथ बनाए रखने के लिए तथा अपनेपन के लिए।
हरदीप
प्रियंका जी बच्चों के मन को प्रसन्नता प्रदान करने वाली एक प्रथा संता का आकर मोजों में उपहार रखना ,बहुत सुन्दर भावाभ्व्यक्ति है आपको और कमला जी को भाव पूर्ण हैबन के लिए हार्दिक बधाई |
मन को छू लेने वाली सहज अभिव्यक्ति।
प्रियंका जी तथा कमला जी को बधाई।
बहुत सुन्दर हाइबन प्रस्तुति। प्रियंका जी तथा कमला जी को बहुत बधाई।
Ppriyanka ji aur Kamla ji, dono ke haibun bahut hi sunar abhivyaktiyan hain, dono ko haardik badhaaii.
waah bahut khoob
Nice
It is good
मुझे हाइबन पढ़ना बहुत पसन्द है। पहली बार मैंने हरदीप जी का हाइबन पढ़ा था । प्रियंका जी और कमला जी आप दोनों को हार्दिक बधाई। प्रियंका जी ये सच है आज भी बहुत सी परिस्िथतियों में मन के भीतर हम सांता क्लाज़ का ही इंतजार करते हैं। कमला जी बहुत सहज और खूबसूरत हाइबन ।
Bahut achha laga dono lekhkon ko padhkar meri shubhkamnayen...
Sorry lekhokaon ko padhakar
एक टिप्पणी भेजें