चहूँ ओर उल्लास (चोका)
शहर छीने
गाँव का माटी-घर
मिटती रही
देहरी पर हँसी,
मिट गया है
गाछ का चबूतरा,
जो सुनता था
बच्चों-बूढ़ों की कथा
भोर की बेला,
मिटता गया अब
माटी का दीया
भले आए दीवाली
चारो तरफ़
जगमग बिजली।
कोई न पारे
अँखियों का काजल
कोने में पड़ा
कजरौटा उदास
बाट जोहता
अबकी दीवाली में
कोई तो पारे।
तरसती रहती
गाँव की धूप
कोई न आता पास
सेंकता धूप
न कोई है बनाता
बड़ी-अचार
बाज़ार ने है छीने
देसी मिठास।
विदेशी पकवान
छीने सुगन्ध
खीर-पूरी-मिठाई
बिसरे सब
भूले त्योहारी गंध
फैला मार्केट
केक व चॉकलेट।
नहीं दिखतीं
वह बुढ़िया दादी
सूप मारतीं
दरिद्दर भगातीं,
दुलारी अम्मा
पकवान बनातीं
ओल का चोखा
आलू का है अचार
अहा! क्या स्वाद!
भूले हम संस्कृति
अतीत बनी
पुरानी सब रीति
सारा त्योहार
अब बना व्यापार।
कैसी दीवाली
अपने नहीं पास!
बिसरो दुःख
सजो और सँवरो
दीप जलाओ
मन में भरो आस
चहूँ ओर उल्लास।
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3 टिप्पणियां:
बहुत ही खूबसूरत चोका , हार्दिक शुभकामनाएं ।
हार्दिक आभार भीकम सिंह जी.
बहुत सुंदर चोका...बधाई आपको।
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