डॉoज्योत्स्ना शर्मा
चंदा -सूरज
मुट्ठी में बाँध लिये
सागर सारे
पर्वत नाप लिये
अँधियारों पे
विजय पा गए हो
उजालों में क्यूँ
यूँ भरमा रहे हो ?
हवा धूप भी
दासियाँ हों तुम्हारी
ममता नहीं
स्वर्ण की आब प्यारी
ऊँचे भवन
सारा सुख खजाना
खुशियों भरे
प्रीत के गीत गाना
व्यर्थ ही तो हैं
दे ही ना पाये जब
माता पिता को
तुम दो वक्त खाना
भूले गले लगाना ।
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5 टिप्पणियां:
बहुत सही बात कही है...माता-पिता का मान-सम्मान कर लिया , उन्हें प्यार कर लिया तो सारे तीरथ तो स्वयं ही हो गए...। क्या मन्दिर. क्या मस्जिद...सब तो हमेशा हमारे सामने रहता है, बस ईश्वर को पहचान ही नहीं पाते...।
बहुत बधाई...।
आपका चौका बहुत सुन्दर भाव लिये हुवे है। बधाई...
रेनु चन्द्रा
Bahut sundar bhaav...
व्यर्थ ही तो हैं
दे ही ना पाये जब
माता पिता को
तुम दो वक्त खाना
सार्थक सन्देश देती रचना । बधाई
सब सुख-वैभव निरर्थक हैं यदि माता-पिता के दुख का कारण हम हैं।
बधाई डॉoज्योत्स्ना शर्मा को इस सूदर और सार्थक रचना के लिए।
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