डॉ हरदीप कौर सन्धु
तेरा मिलन
सुना जाता है मुझे
हर पल ही
अनकहा -सा दर्द
बहता रहा
जो तेरी अँखियों से
निचौड़ी गई
अधूरे अरमान
कठिन राह
अब कहाँ से लाऊँ
पीर खींचती
सुना जाता है मुझे
हर पल ही
अनकहा -सा दर्द
बहता रहा
जो तेरी अँखियों से
निचौड़ी गई
अधूरे अरमान
कठिन राह
अब कहाँ से लाऊँ
पीर खींचती
कोई जादुई दवा
धीरे -धीरे से
तेरे खुले ज़ख्मों पे
रखने को मैं
उठी बिरहा -हूक
बेनूर हुई
धीरे -धीरे से
तेरे खुले ज़ख्मों पे
रखने को मैं
उठी बिरहा -हूक
बेनूर हुई
लबों पे आ लौटती
काँटों चुभती
तीखी -सी टीस ने
हौले -हौले ही
समय की तल पे
यूँ फ़ाहे रख
खुद ही हैं भरने
काँटों चुभती
तीखी -सी टीस ने
हौले -हौले ही
समय की तल पे
यूँ फ़ाहे रख
खुद ही हैं भरने
तेरे दिल
के
अकथ
औ असह्य
गहरे दर्द- ज़ख्म !
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4 टिप्पणियां:
खूबसूरती से सच बयान हुई कि
समय से बड़ा कोई मलहम नहीं
अद्धभुत अभिव्यक्ति
मर्मस्पर्शी चोका ....
अब कहाँ से लाऊँ
पीर खींचती
कोई जादुई दवा.......बहुत सुन्दर रचना ..बधाई ...हरदीप जी !
कुछ पीर की दवा होती ही नहीं, वक़्त का मरहम ही धीरे धीरे.....
बहुत खूबसूरत अलफ़ाज़...
अब कहाँ से लाऊँ
पीर खींचती
कोई जादुई दवा
धीरे -धीरे से
तेरे खुले ज़ख्मों पे
रखने को मैं
भावपूर्ण चोका के लिए हरदीप जी को बधाई.
bahan hardeep ji apake dwara likha gaya choka sargarbhit hai.
pushpamehra.
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