ज्योत्स्ना प्रदीप
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तुमने मुझे
कभी तो चाहा होता,
सराहा होता ।
एक शहर में ही
रहते नहीं
अलग -अलग से ,
भोली भूलें थीं
माना मेरी भी कहीं,
पर तुम्हारे ?
अक्षम्य अपराध
भ्रम-सर्पों के
मन के पाताल में
पालते रहे
जो हर पल दिल
सालते रहे ।
दे गये नेह-पीड़ा,
उलाहनों के
तेरे दिये वो दंश,
यूँ मुझमें भी
समा गया आखिर
विष का अंश ।
फिर भी यह मन
तुझमे खोया,
चाहे टूटा या रोया
एक ही आस
भर देती है श्वास
गाते अधर-
ज़हर को ज़हर
करेगा बेअसर ।
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8 टिप्पणियां:
भ्रम-सर्पों के
मन के पाताल में
पालते रहे...बहुत सुंदर चोका ......बधाई
मन को विह्वल कर गया आपका चोका.... ज्योत्स्ना प्रदीप जी ! इसे पढ़कर कुछ पंक्तियाँ हमारे भी मन में आयीं , यहाँ साझा कर रहे हैं ...
~माना अपना
जिसको हरदम
उसी ने डसा।
कैसी थी मजबूरी
अनचाहे ही
पिया विष का प्याला
मान अमृत-हाला...~
~सादर
अनिता ललित
bohot hi accha choka likha hai jyotsna ji.....behad khoobsurat ....
फिर भी यह मन
तुझमे खोया,
चाहे टूटा या रोया
ज्योत्स्ना जी को पढ़ना सदा ही आनंद से भर देता है। मर्म छूती है इनकी अभिव्यक्ति, विधा कोई भी हो।
anita ji,anita ji , shivika ji ko man se abhaar utsahvardhan ke liye.
anita lalit ji aapki panktiyo mein jo peeda ..sunderta ke saath basi hai vo man ko sparsh kar gaie anayaas h.....ati sunder .i
behad khoobasoorat ..mn ko chhuu lene waalii prastuti ..jyotsna ji ...aapkii rachanaaen mugdh kartee hain !!
ज़हर को ज़हर
करेगा बेअसर ।
बहुत खूब...बिलकुल सटीक...|
हार्दिक बधाई...|
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