रामेश्वर
काम्बोज ‘हिमांशु’(अनुवाद-डॉ हरदीप सन्धु)
1
अकाश खुला
विहड़े दीआँ कँधां
ज़ंजीर किते
कोई नहीं दिखदी
फिर वी बंधन है।
2
रात ढली है
चन्द लवे उबासी
ऊँघण तारे
मोह थपक्की दे के
लोरी सुणावे हवा।
3.
निक्कड़ी चिड़ी
लभ्भे किथ्थे बसेरा
गुंम झरोखा
दलान वी गायब
जाए ताँ किथ्थे जाए ?
-0-
5 टिप्पणियां:
सुन्दर ताँका , सुन्दर अनुवाद !
हार्दिक बधाई हरदीप जी, भैया जी !
~सादर
अनिता ललित
sabhi haiku va unaka anuvad bhi sunder hai . kamboj bhai ji ,bahan hardeep ji apako badhai.
pushpa mehra.
khoobsurat taanka...saath hi anuvaad bhi ...himanshu ji ,hardeep ji ko badhai.
mohak taankaa ..aur ...sundar anuvaad ....bahut bahut badhaaii aap dono saahitykaaron ko ..naman !
अनूदित तांका में भी उतनी ही मिठास है, जितनी कि असल में...| भाषांतर के बावजूद बहुत आराम से उसका आनंद उठाया...| हार्दिक बधाई...|
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