डॉ०भावना कुँअर
1
चाहूँ मैं जाना
एक अजनबी से
अन्जान सफ़र पे
रोकते हो क्यूँ
हर बार ही मुझे
बढ़ा हाथ अपना।
2
सँभाले रही
घुटन की चादर
जाने कहाँ उघरी
निकल भागी
आँसुओं में लिपटी
जा मीत- गले लगी।
3
सर्द रातों में
गरम चादर -सी
लिपटी क्यों रहती?
अतीत की ये
घनी परछाइयाँ
देती रुसवाइयाँ।
4
घोलें मिस्री -सी ,
कभी कड़ुवाहट,
बीते हुए कल की;
परछाइयाँ
खिली ,कभी
बिखरी
जैसे अमराइयाँ।
5
नन्हीं कलियाँ
खिलने को आतुर
छोड़ती जाएँ पीछे
बचपन की
यूँ यादों में लिपटी
ढेरों परछाइयाँ।
6
तेरी थी छाया
छोड़ अँगना चली
सिसकियों में गूँजी,
मैके की गली
अरमानों से लदी
डोली निकल पड़ी।
छाया: रामेश्वर काम्बोज |
7
लहर आती
लहर आती
किनारों के कान में
कहकर है जाती
न जाने क्या-क्या
चुपके -से ,हौले -से
सबसे है छिपाती।
8
किरणें आज
सागर के तन को
खूब गुदगुदाएँ
सूर्य बुलाए
मंद-मंद मुस्काएँ
वापस ही न जाएँ।
9
मन की झील
शान्त थी बरसों से
कौन पथिक आया !
फेंक इसमें
प्रेम-काँकर ,भागा
हाथ ही न आ पाया।
12 टिप्पणियां:
घुटन की चादर ,नन्हीं कलियाँ ,तेरी थी छाया ..क्या कहिये बहुत भावपूर्ण सेदोका हैं सारे |" किरनें आज " बहुत सुन्दर !
बहुत बहुत बधाई भावना जी !
गुजरात से आदरणीय डॉ भगवतशरण अग्रवाल जी ने फोन करके यह सन्देश पहुँचाने के लिए कहा-डॉ भावना कुँअर के सेदोका अभी-अभी पढ़े , बहुत ही भावपूर्ण सृजन है । चित्र-संयोजन भी बहुत अर्थपूर्ण है।मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई पहुँचा दीजिए।
-0-
त्रिवेणी परिवार इस प्रकार प्रेरणा देने वाले मनीषियों का कृतज्ञ है जो अपने नई पीढ़ी को अपना आशीर्वाद सदा देते रहे हैं। -सम्पादक
2
सँभाले रही
घुटन की चादर
जाने कहाँ उघरी
निकल भागी
आँसुओं में लिपटी
जा मीत- गले लगी।
-इस सेदोका का कोई जवाब नहीं। अन्य सेदोका का माधुर्य भी हृदयस्पर्शी है । भावपूर्ण काव्य का इससे बेहतर उदाहारण क्या होगा । नई पीढी में भावना जी और डॉ हरदीप सन्धु जी बेजोड़ रचनाकार हैं। मेरी बधाई स्वीकारें!
बहुत सुन्दर भावपूर्ण सभी सेदोका लेकिन यह तीनों.... सम्भाले रही, सर्द रातों में, तेरी थी छाया...लाजवाब हैं!
भावन जी आपको हार्दिक बधाई !
मन की झील
शान्त थी बरसों से
सभी उत्कृष्ट सेदोका मन की झील से अनुभूतियों की तरंगों का प्रवाह गागर में सागर भर रहा है .
डॉ भावना कुँअर जी बधाई .
Aap sabhi ke is apar prem ke liye hrday se aabhaari hun yahi sneh to meri prerna hai... Bahut bahut aabhar
किरणें आज
सागर के तन को
खूब गुदगुदाएँ
सूर्य बुलाए
मंद-मंद मुस्काएँ
वापस ही न जाएँ।
.बहुत सुन्दर ....
बहुत ही सुन्दर रचनाएं। जीवन के विभिन्न लमहों को दर्शाते हैं। स्वयं शून्य
SUNDER BHAAVO SE SUSAJJIT SEDOKA .....MAN KO CHOO GAYE....AAPKO BAHUT -BAHUT BADHAI BHAWNA JI.
मन की झील
शान्त थी बरसों से
कौन पथिक आया !
फेंक इसमें
प्रेम-काँकर ,भागा
हाथ ही न आ पाया।
बहुत प्यारा...| सब एक से बढ़ के एक सुन्दर...| हार्दिक बधाई...|
दर्द जब हद से गुज़रता है तो दवा बन जाता है -सुनते आये थे .... देख भी लिया। आ. भावना जी की रचनाओं में बहता दर्द सदा ही कुछ रचने को प्रेरित करता है। पढ़कर एक अजीब सी तृप्ति, अनोखा सुक़ून मिलता है …काश! इसका कुछ अंश भी हमारी अभिव्यक्ति में स्थान पा सकता होता।
आपकी लेखनी को सलाम भावना जी।
~सादर
अनिता ललित
सर्द रातों में
गरम चादर -सी
लिपटी क्यों रहती?
अतीत की ये
घनी परछाइयाँ
देती रुसवाइयाँ।.....................क्या लिखती हैं आप भावना जी कमाल है....अति सुन्दर
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