मुमताज टी-एच ख़ान
1
द्वार पे खड़े
दर्शन को तरसें
ये नयन हमारे
भर के आँसू
सावन के मेघो -से
बरसें हैं बेचारे ।
2
छोड़ लाडली
चले जो दूर हम
तड़प उठा मन
कुछ पल को
डगमगा गए थे
हमारे ये कदम ।
3
नहीं हुआ था
कलेजे का टुकड़ा
दूर कभी हमसे
पीर थी ऐसी
छलकने लगे थे
हमारे दो नयन ।
4
रुके पल को
खुद ही समझाया
बाते सभी फ़िज़ूल
जाना ज़रूर
कल बिदा हो उसे
हुमसे कहीं दूर ।
5
उजाड़ दिया
बहुतों का चमन
बना दिया श्मशान
धर्म के नाम
ले लिये दरिन्दो ने
बेकुसूरों के प्राण ।
6
सूनी सड़कें
बन्द पड़ी दुकानें
भूखा है मज़दूर
नेता है सुखी
फूँका गली -चौबारा
कर सबको दुखी ।
-0-
6 टिप्पणियां:
मुमताज़ जी की रचना बहुत अच्छी लगी खास कर विदाई की
।
सभी सेदोका बहुत बढ़िया
सामयिक रचना...
उजाड़ दिया
बहुतों का चमन
बना दिया श्मशान
धर्म के नाम
ले लिये दरिन्दो ने
बेकुसूरों के प्राण ।
शुभकामनाएँ.
सभी रचनाएं बहुत सुन्दर
कृष्णा वर्मा
सभी सेदोका बहुत अच्छे हैं...बधाई...।
bhaavpurna sedoka.. :)
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