पुष्पा मेहरा
1
रोपे थे बीज
सोचा झूमेगी
क्यारी
होंगे ढेरों
प्रसून,
उगी न पौध
खिला न कोई फूल
सूखी पड़ी
थी क्यारी।
2
यहाँ से वहाँ,
फैली विदीर्ण धरा
निहारती अम्बर,
बोली फफक-
प्यासी मैं रह गई
बुझा दो मेरी
तृष्णा।
3
चलते चलें
घट ले,
दूर कहीं
खोज लें कूप
भरा,
जा बसें जहाँ-
न हो कोई
तृषित
तृप्त रहें
अधर।
4
कौन हो तुम !
सुन,
बोली- श्रावणी
नभ- मंडल वासी-
घटाएँ हैं हम
सजाएँगी धरणि
हरषायेंगी मन।
5
वादियाँ कहें
आपस में रो-रो
के-
घनी पीड़ा दे
गया
फफोला बड़ा-
फूटा,
तन्नाया- बहा
तीर किसने
मारा !
4 टिप्पणियां:
" वादियाँ कहें / आपस में रो-रो के-/ घनी पीड़ा दे गया / फफोला बड़ा /- फूटा, तन्नाया- बहा/ तीर किसने मारा!" आपके सेदोका अनुभूति की बेहतरीन अभिव्यक्ति हैं। पुष्पा जी ! बधाई स्वीकार करें ।
उत्कृष्ट प्रस्तुति .
बधाई .
बहुत बढ़िया सेदोका!
पुष्पा जी....बधाई!
वादियाँ कहें
आपस में रो-रो के-
घनी पीड़ा दे गया
फफोला बड़ा-
फूटा, तन्नाया- बहा
तीर किसने मारा !....बहुत प्रभावी ...बहुत बधाई !!
सादर
ज्योत्स्ना शर्मा
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