सेदोका
डॉ सरस्वती माथुर
1
मन शिल्पी- सा
गढ़ता रहता क्यों
चित्र नये पुराने,
रंग भरे तो
लगे पहचाने से
रिश्तों के ताने
बाने ।
2
बचपन था
कागज की नाव में
बैठ पार जा लगा,
शब्दरहित
लहरें सैलाब -सी
मन को डूबो गईं।
3.
विक्षुब्ध मन
जीवन -अरण्य
में
अतृप्त- सा डोलता,
जाने क्या सोच
वैरागी सा होकर
सारे राज़ खोलता l
4॰
मन टापू है
भूले बिसरे लोग
यादों की नावों पर
उदासी ओढ़
धुआँई छाया- से
गुजरते जाते हैं
l
5
धूप का डोरा
खींच- सूर्य रंग
के
मटमैली हो संध्या
सागर पर
फूल- सी खिलती है
धरा से मिलती है
!
-0-
9 टिप्पणियां:
बेहद सुन्दर सेदोका!
डॉ. सरस्वती माथुर को शुभकामनायें!
सरस्वती जी बहुत अच्छे सेदोका। बधाई।
धूप का डोरा
खींच- सूर्य रंग के
मटमैली हो संध्या
सागर पर
फूल- सी खिलती है
धरा से मिलती है !
अति विशेष
सभी लाजवाब
सभी सेदोका बहुत सुंदर। बधाई।
क्षुब्ध मन
जीवन -अरण्य में
अतृप्त- सा डोलता,
जाने क्या सोच
वैरागी सा होकर
सारे राज़ खोलता l
डॉ० साहिब !बहुत खूब !
मन टापू है
भूले बिसरे लोग
यादों की नावों पर
उदासी ओढ़
धुआँई छाया- से
गुजरते जाते हैं l
ye bahut pasand aaya hardik badhai...
बहुत सुन्दर भावपूर्ण सेदोका !
हार्दिक बधाई डॉ. सरस्वती जी !!
डॉ सरस्वती जी बहुत सुन्दर सेदोका की रचना की है |हार्दिक बधाई |
मन शिल्पी- सा
गढ़ता रहता क्यों
चित्र नये पुराने,
रंग भरे तो
लगे पहचाने से
रिश्तों के ताने बाने ।
बहुत सुन्दर सेदोका...हार्दिक बधाई...|
एक टिप्पणी भेजें