सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

वक़्त की सत्ता


डॉ.उर्मिला अग्रवाल
1-वक़्त की सत्ता
घंटाघर की
चारों घड़ियाँ बजीं
साथसाथ ही
एक घड़ी पहले
न ही बाद में
एक ख्याल उभरा
कारीगर ने
यह सोचकर ही
लगाई होगी
चारों ओर घड़ी कि
हर दिशा से
देखा जा सके वक्त
मेरी बात पे
जाने क्यों हँस दिया
ये घंटाघर
मैंने पूछा तो बोला-
अरी पागल
इंगित करती हैं
ये घडि़याँ कि
चारों ओर फैली है
वक़्त की सत्ता
वक़्त के कब्जे में हैं
यह ज़िन्दगी
भूलना मत सब
वक़्त के गुलाम हैं।
-0-
2-सुराही-
अक्सर मुझे
खींचती है सुराही
अपनी ओर
कहना चाहती है
शायद कोई
घना दर्द अपना
मैंने पूछा तो
बयां करने लगी
अपनी पीड़ा
कुछ इस तरह
मेरा संबंध
सदा ही जोड़ा जाता
क्यों मदिरा से
जाम से औ साकी से
यह तो तुम्हें
सोचना है कि मेरा
उपयोग हो
किस काम के लिए
दे सकती हूँ
मैं शीतल जल भी
यदि चाहोगे
केवल नशा नहीं
तृप्ति भी देती
शीतल जल भरी
बदनाम सुराही।
-0-

कोई टिप्पणी नहीं: