मंगलवार, 24 सितंबर 2013

डर नहीं लगता

राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’
1
भूखे गरीब
पेट गए चिपक
धूप से नहीं
बढ़ रही कीमतें
पेट नहीं भरतीं ।
2
ऐसा शहर
बहरे रहते हैं
स्वयं में मस्त
पड़ोसी की पीड़ा से
रहते बेखबर ।
3
अब मुझको
डर नहीं लगता
अन्धकार में
लुटा मैं अपनों से
दिन के उजालों में ।
4
वक़्त देता है
जो भी गहरे घाव
भर जाते हैं
बेटे का दूर जाना
रातों को सताता है ।
5
बर्फ़ीली नदी
दूध जैसी निर्मल
घर से चली
राह में जो भी मिला
विष घोलता गया ।
6
विश्वास मेरा
टूटकर बिखरा
आँखों के आगे
बेटे ने जब कहा-
आप बूढ़े हो गए ।
7
मन हिरना
भोग के  जंगल में
भागता फिरे
मिली कभी न शान्ति
कामनाएँ अनन्त  ।
-0-

5 टिप्‍पणियां:

Rachana ने कहा…

अब मुझको
डर नहीं लगता
अन्धकार में
लुटा मैं अपनों से
दिन के उजालों में ।
bahut sunder satik bhav aaj ka smy aesa hi hai
rachana

Subhash Chandra Lakhera ने कहा…

" मन हिरना / भोग के जंगल में / भागता फिरे/ मिली कभी न शान्ति / कामनाएँ अनन्त । " राजेंद्र जी ! आपके सभी तांका ह्रदय - स्पर्शी; बहुत - बहुत बधाई !

Krishna ने कहा…

सभी ताँका बहुत सुन्दर !
राजेन्द्र मोहन जी बधाई!

सीमा स्‍मृति ने कहा…

राजेन्‍द्र मोहन जी का तांका कमाल है। एक एक शब्‍द अनुभव की पिटारी से निकला लगता है।

विश्वास मेरा
टूटकर बिखरा
आँखों के आगे
बेटे ने जब कहा-
आप बूढ़े हो गए ।
अब मुझको
डर नहीं लगता
अन्धकार में
लुटा मैं अपनों से
दिन के उजालों में ।
राजेन्‍द्र जी को हार्दिक बधाई ।

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

ऐसा शहर
बहरे रहते हैं
स्वयं में मस्त
पड़ोसी की पीड़ा से
रहते बेखबर ।

अब मुझको
डर नहीं लगता
अन्धकार में
लुटा मैं अपनों से
दिन के उजालों में ।

जीवन की सच्चाई दर्शा दी है आपने...हार्दिक बधाई...|

प्रियंका